How did Muslims come to power in Delhi?
पृथ्वीराज की एक चूक से दिल्ली में मुस्लिम सत्ता आई: तैमूर और नादिरशाह ने मचाया कत्लेआम!
How did Muslims come to power in Delhi?
पृथ्वीराज की एक चूक से दिल्ली में मुस्लिम सत्ता आई: तैमूर और नादिरशाह ने मचाया कत्लेआम!
शुरुआत उस कहानी से, जो भारत के इतिहास का टर्निंग पॉइंट है । जब दिल्ली की गद्दी पर पहली बार मुस्लिमों ने कब्जा किया ।
जाने माने इतिहासकार सतीश चंद्र अपनी किताब “मध्यकालीन भारत” में लिखते हैं कि चौहानों ने दिल्ली को 1151 ईस्वी में तोमरो से सीना था । चौहान वंश के सबसे चर्चित राजा पृथ्वीराज चौहान तृतीय ने 1177 ईस्वी में सिंहासन संभाला और अपने राज्य के विस्तार में जुट गए ।
लगभग इसी दौर में अफगानिस्तान के गोर प्रांत में शहाबुद्दीन मोहम्मद उर्फ मोहम्मद गोरी गद्दी पर बैठा। उसने अफगानिस्तान से निकलकर लाहौर,पेशावर और सियालकोट जीता । अब उसकी नजर दिल्ली पर थी ।
पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी का पहला मुकाबला 1191 में तराइन के युद्ध में हुआ । यह जगह हरियाणा के करनाल के पास है । पृथ्वीराज की सेना ने मोहम्मद गौरी की सेना को तहस-नहस कर दिया । मोहम्मद गोरी सेना समेत पंजाब की तरफ भाग खड़ा हुआ । पृथ्वीराज ने गोरी को खदेड़ने की कोशिश नहीं की और उसकी जान बच गई । पृथ्वीराज की इस गलती ने भारत के इतिहास का रुख मोड़ दिया ।
मोहम्मद गोरी ने साल भर तैयारी की और 1192 ईस्वी में 120000 सैनिको के साथ फिर हमला किया। इनमें बड़ी संख्या तुर्की घुड़सवार तीरंदाजों की थी । तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई और वह भारत के आखिरी स्वतंत्र हिंदू सम्राट साबित हुए ।
तराइन की लड़ाई के बाद मोहम्मद गौरी कुतुबुद्दीन ऐबक जैसे सरदारों के हवाले दिल्ली छोड़कर अफगानिस्तान स्थित गौर लौट गया । इस तरह दिल्ली की गद्दी पर पहली बार मुसलमान का शासन शुरू हुआ, जो कि करीब 500 साल तक जारी रहा ।
कुतुबमीनार मस्जिद और तांबा, पीतल के सिक्के:
1208 ईस्वी में मोहम्मद गौरी की मौत के बाद उसका सरदार कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली का पहला सुल्तान बना और दिल्ली सल्तनत की स्थापना की । वह गुलाम वंश का संस्थापक था । दिल्ली की मशहूर कुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ऐबक न ही बनवाना शुरू किया था और बाद में उनके उत्तराधिकारी समसुद्दीन इल्तुतमिश न इसे पूरा किया ।
इतिहासकार ब्रिज किशन चांदीवाला अपनी किताब “दिल्ली की खोज”में लिखते हैं, ऐबक की देखरेख में कुवैत इस्लाम मस्जिद का निर्माण हुआ । इसे 27 मंदिर तोड़कर उनके सामग्री से बनाया गया था । इसमें एक पृथ्वीराज चौहान का बनाया मंदिर भी था।
कुतुब मीनार के प्रवेश द्वार पर एक शिलालेख में लिखा भी है कि यह मस्जिद वहां बनवाई गई है जहां 27 हिंदू और जैन मंदिरों का मलबा था । इसी वजह से कई हिंदू संगठन कुतुब मीनार का नाम विष्णु स्तंभ करने की मांग करते हैं, और दावा करते हैं कि इसे पृथ्वीराज चौहान ने बनवाना शुरू किया था ।
दिल्ली सल्तनत के इतिहास में पांच प्रमुख वंश:-
गयासुद्दीन तुगलक 1320 ईस्वी में गद्दी पर बैठा तो उसने कुतुब शहर से 5 किलोमीटर दूर तुगलकाबाद बनवाना शुरू किया । महल की ईटों पर सोने की परत चढ़ी थी । एक होज बनवाई थी, जिसमें सोना पिघलवा कर रखा था । उसके बेटे मोहम्मद बिन तुगलक ने 1330 ईस्वी में सोने और चांदी के सिक्कों के बराबर पीतल और तांबे के सिक्के जारी किए ।
आदित्य अवस्थी अपनी किताब “दास्तान ए दिल्ली” में लिखते हैं कि एक बार सुल्तान फिरोज शाह शिकार खेलने गया था । अंबाला जिले के जगाधरी के पास टॉपरा में उसे दो लाटें (मीनार) दिखे । 1356 में उसने आदेश दिया इसे दिल्ली में लगवाया जाए ।
एक मीनार को फिरोज शाह कोटला की छत पर वह दूसरी को शिकारगाह यानी वर्तमान में डीयू के नॉर्थ कैंपस के पास लगवाया गया । यह सम्राट अशोक के समय बनवाई गई थी ।
इन्हें दिल्ली लाने की रोचक कहानी है । 27 टन की 42 फीट ऊंची इन मीनारो के आसपास रहने वाले लोगों को आदेश दिया गया जो भी काम करने लायक हो आ जाएं । मीनार के नीचे खुदाई शुरू की गई । उसके आसपास मिट्टी और रुई का सेट बनवाया गया । उस पर धीरे से मीनार को गिराया गया । मीनार के चारों ओर चमड़ा लपेटा गया ताकि दिल्ली तक लाने में कोई नुकसान ना हो ।
मीनार को लाने के लिए विशेष वाहन बनाया गया, जो इतना वजन सह सके । हजारों लोगों को इस वाहन को खींचने में लगाया गया । इन्हें खींचते हुए यमुना किनारे लाया गया । एक विशेष नाव बनावाई गई जो वजन से डुबे नहीं । यह नाव इतनी बड़ी थी कि इन्हें चलाने के लिए 2000 लोग लगे थे ।
1526 में बाबर ने पानीपत के पहले युद्ध में इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली सल्तनत को समाप्त किया और मुगल साम्राज्य की स्थापना की । मुगलों के 6 प्रमुख शासक हुए बाबर,हुमायूं,अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब ।
“आईन -ए – अकबरी” में अबुल फजल लिखते हैं कि अकबर को कभी दिल्ली रास नहीं आई । वह दिल्ली से दूर रहे, हमेशा आगरा को ही अपनी राजधानी बनाया । दरअसल 1564 ईस्वी में दिल्ली में दिल्ली के पुराने किले के पास अकबर की तीर मारकर हत्या करने की कोशिश की गई थी । अकबर के शासनकाल में दिल्ली में हुमायूं और मुगल वंश के महत्वपूर्ण लोगों के मकबरे बनाए गए। यह मकबरे आज भी है ।
जब दिल्ली की सड़कों पर बिछी 30,000 से ज्यादा लाशें
साल 1719 में मोहम्मद शाह रंगीला ने मुगल साम्राज्य की गद्दी संभाली । अपने लगभग 30 साल के राज्य में रंगीला ने खुद कोई लड़ाई नहीं छेड़ीl मुर्गों की लड़ाई, घुड़दौड़, संगीत, इश्क – मोहब्बत में डूबे रहते । बादशाह के बारे में कहा जाता है कि वह लड़कियों के कपड़े पहन कर नाचते थे ।
गिरावट के बावजूद अब भी काबुल से लेकर बंगाल तक मुगल शहंशाह का सिक्का चलता था । राजधानी दिल्ली उस समय दुनिया का सबसे बड़ा और अमीर शहर था, जिसकी आबादी लंदन और पेरिस से भी ज्यादा थी ।
मुगलों का अकूत पैसा देखकर पर्शिया का शासक कोली खान यानी नादिर शाह 36000 घोड़े की सेना लेकर दिल्ली की तरफ बढ़ चला । इसकी खबर लेकर जब हरकारा बादशाह के पास आया, तो बादशाह ने उन्होंने चिट्ठी को दारू के प्याले में डुबो दिया और बोले- ‘ आईने दफ्तार – ए – बेमाना घर्क-ए-मय नाब उला ‘ यानी इस बिना मतलब की चिट्ठी को खालिस शराब में डूबा देना बेहतर है ।
कहा जाता है कि मोहम्मद शाह को जब भी बताया जाता कि नादिर शाह की फौज आगे बढ़ रही है तो वह यही कहते – ‘ हनुज दिल्ली दूर अस्त , यानी अभी दिल्ली बहुत दूर है । ब्रिटिश भारत में दिल्ली की प्लानिंग करने वाले इंजीनियर कर गोल्डन रिश्ले हर्न अपनी किताब ‘ द सेवन सिटीज ऑफ दिल्ली ‘ में लिखते हैं कि 9 मार्च 1739 को नादिरशाह दिल्ली में घुसा और महल पर कब्जा कर लिया ।
शाम होते – होते पहाड़गंज में अनाज व्यापारियों और फारसी सैनिकों के बीच हाथापाई शुरू हो गई । यह खबर फैल गई की नादिर शाह मारा गया है । जल्दी ही दंगा भड़क गया । जनता ने कई फर्शियो को मार गिराया । दरियागंज इलाके में जब नादिर शाह गया तो उस पर गोली चलाई गई । वह बच गया लेकिन, उसका खास वजीर मर गया। इससे नाराज होकर उसने दिल्ली में कत्लेआम का आदेश दिया ।
नादिर ने दिल्ली को 58 दिनों तक लूटा । 32 करोड रुपए, हजारों हाथियों सो राजमिस्त्रियों और 200 बढइयों के साथ वह लौट गया। इसमें जो सबसे बेस – कीमती चीज कोहिनूर हीरा था सब कुछ लूट कर उसने मोहम्मद शाह को फिर से गद्दी पर बिठा दिया ।
मुगलों का तख्त-ए-ताऊस
शाहजहां ने 1634 ईस्वी में तहत -ए -ताऊस यानी मयूर सिंहासन बनवाया। इसमें मशहूर कोहिनूर हीरा और दरिया-ए -नूर हीरा लगा था । इसमें 6 बड़े-बड़े ठोस सोने के पाए थे । जिन पर कई माणक पन्ने और हीरे लगे थे ।
फ्रांस, तुर्की, अरब, इटली के कई यात्री और राजदूत इस मयूर सिंहासन को देखने दिल्ली आते थे ।
जब शाहजहां की मौत हुई तो औरंगजेब इसे विशेष मौके पर ही लोगों को दिखाता था।
जब नादिर शाह आया तो इसे तोड़कर अपने साथ ले गया।
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